कश्मीर की प्रतिष्ठित डल झील में बड़ी संख्या में मछलियों की अचानक मौत ने जल प्रदूषण, सुपोषण और अप्रभावी नियंत्रण उपायों पर फिर से चिंताएं बढ़ा दी हैं।
औकीब जावीद: इस साल 25 मई को जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर की डल झील में बड़ी संख्या में मरी हुई मछलियां तैरती हुई पाई गईं। सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में एक स्थानीय निवासी मरी हुई मछलियों से भरी झील के किनारे खड़ा होकर कहता है: “शहर के कई हिस्सों का सीवेज सीधे झील में जाता है। पानी की बदबू पर्यटकों के जेहन में झील की नकारात्मक छवि बनाती है।” झील के तट पर पर्यटन विषय पर भारत की मेजबानी में आयोजित जी-20 बैठक के समाप्त होने के तुरंत बाद यह घटना हुई। तीन दिवसीय शिखर सम्मेलन के दौरान प्रतिनिधियों को शिकारा पर झील की सैर कराई गई। मई के प्रथम सप्ताह में झील संरक्षण एवं प्रबंधन प्राधिकरण (एलसीएमए) ने, जो जम्मू और कश्मीर में जल निकायों के प्रबंधन एवं संरक्षण के लिए जिम्मेदार है, झील से शैवाल एवं खर-पतवार हटाने के लिए एक व्यापक अभियान चलाया था। जम्मू और कश्मीर के मत्स्य पालन विभाग ने शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एसकेयूएएसटी) की मदद से मछलियों की मौत की जांच की। 26 मई को जारी इसकी रिपोर्ट को द् थर्ड पोल ने देखा है। इसमें झील में ऑक्सीजन का स्तर कम होने सहित कई कारकों को दोषी बताया गया है, जिनमें थर्मल स्ट्रैटिफिकेशन (झील की गहराई के अनुसार तापमान में बदलाव), वसंत ऋतु की शुरुआत के कारण तापमान में 10 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और बादल एवं बरसात के दिनों के कारण ‘कम प्रकाश संश्लेषण’ शामिल हैं। दथर्डपोलडाटनेट रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ‘इसके अलावा बारिश के चलते ऑक्सीजन और भी कम हो जाती है, क्योंकि वे जलग्रहण क्षेत्रों से प्रवाह के साथ अतिरिक्त प्रदूषक/जैविक भार लाती हैं, जिससे निकाय/झील में ऑक्सीजन का उपभोग करके सूक्ष्मजीवों को तोड़ने के लिए और भी अधिक कार्बनिक भार जुड़ जाता है।’
एसकेयूएएसटी में मत्स्य पालन संकाय के डीन फिरोज अहमद भट बताते हैं कि झील में एक बड़े जैविक भार का अपघटन (बायोडिग्रेडेबल पदार्थ, जिसमें खर-पतवार, सीवेज, कृषि अपशिष्ट और उर्वरक शामिल हो सकते हैं) करने के लिए बहुत ज्यादा ऑक्सीजन का उपयोग हो सकता है, जिससे ऑक्सीजन की कमी के कारण मछलियां मर जाती हैं। मत्स्यपालन विभाग की रिपोर्ट का निष्कर्ष है : “डल झील की परिधि में रहने वाले लोगों को घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह एक प्राकृतिक घटना है।”
अकेली घटना नहीं
मई में डल झील में बड़े पैमाने पर मछलियों की मौत कोई अकेली घटना नहीं थी : कश्मीर में हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर मछलियों की मौत की कई घटनाएं देखी गई हैं। अगस्त, 2012 में, श्रीनगर की निगीन झील में बड़ी संख्या में मछलियां मर गईं, जो एक संकरी धारा द्वारा डल झील से जुड़ी हुई है। इसके लिए जम्मू और कश्मीर मत्स्य पालन विभाग ने ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट और पानी के तापमान में बदलाव को जिम्मेदार ठहराया। अक्टूबर 2017 में श्रीनगर में झेलम नदी में हजारों मृत मछलियां तैरती हुई पाई गईं और किनारों पर बहकर आ गई थीं, अधिकारियों ने बताया कि ऐसा कम ऑक्सीजन स्तर के कारण हुआ। फिर जुलाई, 2022 में दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले के पंपोर क्षेत्र में स्थित फशकूरी वेटलैंड में कई मृत मछलियां पाई गईं। अधिकारियों के अनुसार, आर्द्रभूमि के पानी के विश्लेषण से फॉस्फेट और अमोनिया नाइट्रेट के उच्च स्तर का पता चला, जिनका उपयोग उर्वरकों में किया जाता है। कश्मीर विश्वविद्यालय के जियोइंफॉर्मेटिक्स (भू-सूचना विज्ञान) विभाग के सहायक प्रोफेसर इरफान राशिद, जिन्होंने कश्मीर में इस मुद्दे पर व्यापक शोध किया है, के अनुसार बड़े पैमाने पर मछलियों की मौत की घटनाओं की आवृत्ति बढ़ रही है। रशीद ‘रासायनिक प्रदूषण’ और जल निकायों में प्रवेश करने वाले अनुपचारित सीवेज के साथ ही सायनोबैक्टीरिया के तेजी से बढ़ने और मछली पकड़ने के लिए बिजली के झटके के उपयोग को मुख्य कारण मानते हैं।
कश्मीर के जल निकायों का यूट्रोफिकेशन
‘यूट्रोफिकेशन’ उस प्रक्रिया को कहते हैं, जिसमें एक जल निकाय में फास्फोरस और नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है। सीवेज डंपिंग और आसपास के खेतों में उर्वरकों के प्रयोग जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण बारिश के दौरान ये पोषक तत्व अप्राकृतिक रूप से बहकर बड़ी मात्रा में झीलों और नदियों में प्रवेश कर जाते हैं। बदले मे ये खर-पतवार, शैवाल और फाइटोप्लांकटन (सूक्ष्म पौधे) जैसे जलीय वनस्पतियों के विकास को बढ़ावा देते हैं, जो पानी के ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं। तापमान जैसे जलवायु संबंधी कारक सूक्ष्म पौधों के प्रजनन को तेज कर सकते हैं, इससे ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट आ सकती है। हालांकि, अध्ययनों से यह भी पता चला है कि मानव गतिविधियों के कारण हाल के दशकों में डल झील में पानी की गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। वर्ष 2022 के एक शोध पत्र में पाया गया कि पिछले 40 वर्षों में झील में घुलित ऑक्सीजन की दर में भारी गिरावट आई है, जबकि ‘अनुपचारित सीवेज, कृषि अपवाह और आसपास के जलग्रहण क्षेत्रों से तलछट के निर्वहन’ के कारण फॉस्फेट और नाइट्रेट की उपस्थिति बढ़ गई है। वर्ष 2022 में झील के पानी के आकलन से यह निष्कर्ष निकला कि ‘डल झील तेजी से यूट्रोफिकेशन (मानव जनित गड़बड़ी के कारण) की प्रक्रिया से गुजर रही है।’ इस प्रदूषण के स्रोतों में डल झील में चलने वाली लगभग 1,200 हाउसबोट शामिल हैं, जिनसे यह अनुमान लगाया गया है कि हर साल लगभग 9,000 टन कचरा पानी में प्रवेश करता है। श्रीनगर के 15 प्रमुख नाले का सीवेज भी झील में ही जाता है। हाउसबोटों से होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए एलसीएमए के उपाध्यक्ष बशीर अहमद भट का कहना है कि सरकार ने हाउसबोटों से जल निकाय में अनुपचारित अपशिष्टों के प्रवाह को रोकने के लिए डल झील पर एक फ्लोटिंग सीवेज नेटवर्क लॉन्च किया है। इस साल के प्रारंभ में शुरू हुई इस परियोजना में नावों से सीवेज इकट्ठा करना और उसे उपचार संयंत्रों तक पहुंचाना शामिल है।
प्रभावी प्रदूषण नियंत्रण पर सवाल
भट का कहना है कि अधिकारी यह सुनिश्चित करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं कि झील प्रदूषण और सीवेज मुक्त हो। भट ने द् थर्ड पोल डाट नेट को बताया कि ‘हमने झील में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट [एसटीपी] स्थापित किए हैं और सभी हाउसबोट उससे जुड़े हुए हैं। झील के आसपास के होटल पहले से ही एसटीपी से जुड़े हुए हैं।’ फिर भी वर्ष 2020 में, विशेषज्ञों के एक पैनल ने खुलासा किया कि श्रीनगर का 70 प्रतिशत सीवेज प्रमुख नालों के माध्यम से सीधे डल झील में जाता है। इसके अलावा, उन्होंने निर्धारित किया कि एसटीपी का अत्यधिक उपयोग हो रहा था, लेकिन उसका ठीक से रखरखाव नहीं किया जा रहा था, जिसके चलते अपशिष्ट की गुणवत्ता काफी कम और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा निर्धारित मानकों से काफी नीचे थी। कश्मीर विश्वविद्यालय के इरफान राशिद का कहना है कि टनों अनुपचारित सीवेज अब भी हर हफ्ते कश्मीर घाटी के जल निकायों में प्रवेश करता है, जिसके परिणामस्वरूप पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। रशीद कहते हैं, ‘डल झील घाटी का सबसे व्यापक रूप से प्रबंधित जल निकाय है, लेकिन स्थापित सीवेज उपचार संयंत्रों की प्रभावशीलता बहस का विषय रही है।’ एलसीएमए के भट स्वीकार करते हैं कि डल झील यूट्रोफिकेशन की स्थिति में है। वह कहते हैं, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन हम इसे नियंत्रण में रखने और आगे भी रोकने की कोशिश करेंगे।’ वह कहते हैं, ‘हम डल झील के संरक्षण के लिए हर संभव उपाय कर रहे हैं।’ सरकार ने कहा है कि 2018 से 2022 तक उसने डल झील के संरक्षण पर 2.39 अरब रुपये (2.87 करोड़ डॉलर) खर्च किए। वह कहते हैं कि ‘लगभग 50,000 लोग झील के अंदरूनी हिस्सों में और लगभग 5 लाख लोग झील के जलग्रहण क्षेत्र यानी कैचमेंट एरिया में रहते हैं। ऐसे में आप इस पर पड़ने वाले दबाव की कल्पना कर सकते हैं। हम डल झील से प्रतिदिन 10 टन ठोस कचरा एकत्र करते हैं।’ बहरहाल, (पर्यावरण) कार्यकर्ताओं का कहना है कि अब तक के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता राजा मुजफ्फर भट कहते हैं, ‘जनसंख्या और झील में प्रदूषण दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। झील को फिर से संरक्षित किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति और दृढ़ विश्वास की जरूरत है। यह (वर्तमान स्थिति) जल निवारण और प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम, 1974 का स्पष्ट उल्लंघन है।’
साभारः दथर्डपोलडाटनेट