
हाल ही में अपनी स्थापना के 21 वर्ष पूर्ण करने वाले उत्तराखंड के लिए ये पांचवें विधानसभा चुनाव हैं। यहां भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही दलों का व्यापक जनाधार है। इन दोनों ही दलों को दो-दो बार सरकार बनाने का अवसर मिला है। इनके अलावा बसपा और उत्तराखंड क्रांति दल को पहली तीन विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व हासिल हुआ, जबकि सपा आज तक खाता नहीं खोल पाई है। इतना जरूर है कि वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा ने हरिद्वार सीट पर जीत दर्ज की थी। पिछले चार विधानसभा चुनावों में ऐसे कई अवसर आए, जब मतदाताओं ने चौंकाने वाला फैसला दिया।
राज्य गठन का श्रेय, फिर भी पराजित हुई भाजपा:
नौ नवंबर 2000 को, जब उत्तराखंड देश के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, उस समय उत्तर प्रदेश विधानसभा व विधान परिषद में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे 30 सदस्यों को लेकर अंतरिम विधानसभा गठित की गई। इसमें भाजपा के 23 सदस्य थे, लिहाजा सरकार बनाने का अवसर भी भाजपा को मिला। उत्तराखंड के गठन के समय केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी। उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने का पूरा श्रेय भाजपा को ही मिला, लेकिन वर्ष 2002 में जब पहले विधानसभा चुनाव हुए तो मतदाता ने भाजपा को नकार कर कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। इस चुनाव में कांग्रेस को 36 और भाजपा को 19 सीट मिली थीं।
मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हार गए खंडूड़ी व रावत:
मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव लडऩे वाले नेताओं को उत्तराखंड के मतदाताओं ने पराजित कर अचंभित करने वाला परिणाम भी दिया है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने खंडूड़ी है जरूरी नारा दिया था, लेकिन स्वयं खंडूड़ी चुनाव हार गए। कोटद्वार से खंडूड़ी की पराजय से हुआ यह कि कांग्रेस 32 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और सरकार बनाने की दावेदार बन गई। भाजपा 31 सीटों तक ही पहुंच सकी। इसी तरह वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत दो-दो सीटों हरिद्वार ग्रामीण व किच्छा से पराजित हो गए। एक पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ऐसे रहे, जिन्हें मतदाताओं ने पराजित किया। राज्य के पहले मुख्यमंत्री स्वामी वर्ष 2002 के चुनाव में हार गए थे।
वर्ष 2017 में भाजपा को मिला
ऐतिहासिक बहुमत:
उत्तराखंड में हुए पहले तीन विधानसभा चुनावों में जिस भी दल ने सरकार बनाई, उसे मामूली बहुमत मिला या फिर बाहरी समर्थन लेना पड़ा। वर्ष 2002 के पहले चुनाव में कांग्रेस को 36, वर्ष 2007 के दूसरे चुनाव में भाजपा को 34 और वर्ष 2012 के तीसरे चुनाव में कांग्रेस को 32 सीटों पर जीत मिली। पहले तीन चुनावों के बिल्कुल उलट वर्ष 2017 में हुए चौथे विधानसभा चुनाव में भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली। 70 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा ने 57 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि कांग्रेस के हिस्से केवल 11 ही सीट आईं। यानी भाजपा ने तीन-चौथाई से अधिक बहुमत के साथ सरकार बनाई।
पिछली बार बसपा और उक्रांद रहे खाली हाथ:
पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की भारी-भरकम जीत का असर यह हुआ कि बसपा और उत्तराखंड क्रांति दल को खाली हाथ रह जाना पड़ा। बसपा पहले तीन विधानसभा चुनावों में राज्य की तीसरी बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में स्थान बनाने में सफल रही थी। बसपा को वर्ष 2002 में सात, वर्ष 2007 में आठ व वर्ष 2012 में तीन सीटें मिली थीं। इसी तरह उक्रांद को पहले तीन चुनावों में क्रमश: चार, तीन व एक सीट पर जीत मिली थी। इस तरह बसपा को मैदानी क्षेत्रों में मिल रही कामयाबी का सिलसिला पिछली बार थम गया। उक्रांद भी पहली बार विधानसभा में प्रतिनिधित्व नहीं पा सका।
हर विधानसभा चुनाव में बदलाव का मिथक:
उत्तराखंड के साथ एक दिलचस्प तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि यहां मतदाता किसी राजनीतिक दल को लगातार दो बार मौका नहीं देते। हर विधानसभा चुनाव में अब तक सत्ता परिवर्तन हुआ है। पहले चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया तो दूसरे चुनाव में कांग्रेस को हराकर भाजपा ने वापसी की। फिर वर्ष 2012 के तीसरे चुनाव में कांग्रेस को सत्ता मिली, जबकि वर्ष 2017 में भाजपा ने कांग्रेस को पराजित कर दिया। बदलाव के इस मिथक पर इस बार भाजपा और कांग्रेस के अपने-अपने दावे हैं। भाजपा का कहना है कि इस बार यह मिथक टूट जाएगा, तो कांग्रेस को इसके कायम रहने का भरोसा है।
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