भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन एवं मध्यकालीन दौर के समय गुर्जर-प्रतिहार राजवंश ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था।
गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के शासकों ने मध्य-उत्तर भारत के बड़े हिस्से पर 8वीं सदी से 11वीं सदी के बीच शासन किया। इस राजवंश का संस्थापक प्रथम नागभट्ट को माना जाता है, जिनके वंशजों ने पहले उज्जैन और बाद में कन्नौज को राजधानी बनाते हुए एक विस्तृत भूभाग पर लंबे समय तक शासन किया। नागभट्ट द्वारा 725 ई. में साम्राज्य की स्थापना से पूर्व भी गुर्जर-प्रतिहारों द्वारा मंडोर, मारवाड़ इत्यादि इलाकों में सामंतों के रूप में 6वीं से 9वीं सदी के बीच शासन किया गया, किंतु एक संगठित साम्राज्य के रूप में इसे स्थापित करने का श्रेय नागभट्ट को जाता है।
1937 में डॉक्टर रमा शंकर त्रिपाठी ने किताब लिखी हिस्ट्री ऑफ़ कन्नौज उसमें प्रमाणों के साथ गुर्जर प्रतिहारों को गुर्जर जाति का सिद्ध किया गया था। 1957 में डॉक्टर बैज नाथ पूरी ने किताब लिखी ‘दी हिस्ट्री ऑफ़ गुर्जर प्रतिहारा’, जिसमें प्रमाणों के साथ गुर्जर प्रतिहारों को गुर्जर जाति का सिद्ध किया गया। इसके अलावा 1966 में डॉक्टर विभूति भूषण मिश्रा की लिखी गई किताब दी ‘गुर्जर प्रतिहारा एंड देयर टाइम्स’ में भी ऐसे ही प्रमाणों के बारे में बताया गया है। हालांकि किताबों में यह बात सिद्ध हो चुकी है, लेकिन इतिहासकारों में इनके वंश को लेकर आज भी मतभेद है। कथित रूप से राजपूत इन्हें अपना वंशज मानते हैं, वहीं गुर्जर भी इनके वंश का होने का दावा करते हैं।
गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के शासन के दौरान उमय्यद खिलाफत के नेतृत्व में होने वाले अरब आक्रमणों का नागभट्ट और परवर्ती शासकों ने ध्वस्त कर दिया। कुछ इतिहासकार भारत की ओर इस्लाम के विस्तार की गति के इस दौर में धीमी होने का श्रेय इस राजवंश की मजबूती को देते हैं। वहीं दूसरे नागभट्ट के शासनकाल में यह राजवंश उत्तर भारत की सबसे प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गया था। मिहिर भोज और उसके परवर्ती प्रथम महेन्द्रपाल के शासन काल में यह साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा और इस समय इस साम्राज्य की सीमाएं पश्चिम में सिंध से लेकर पूर्व में आधुनिक बंगाल तक और हिमालय की तलहटी से नर्मदा पार दक्षिण तक विस्तृत थीं।
एक समय यह गुप्त काल के अपने समय के सर्वाधिक राज्य क्षेत्र के लगभग पहुंच गई थी। इस विस्तार ने तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप में एक त्रिकोणीय संघर्ष को जन्म दिया जिसमें प्रतिहारों के अलावा राष्ट्रकूट और पाल वंश शामिल थे। इसी दौरान इस राजवंश के राजाओं ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। इतिहास में इस राजवंश के सम्राट मिहिर भोज को सबसे सशक्त राजा माना जाता है। गुर्जर-प्रतिहार विशेषकर शिल्पकला के लिए जाने जाते हैं। इनके शासनकाल में उत्कीर्ण पटलों वाले और खुले द्वारांगन वाले मंदिरों का निर्माण हुआ। इस शैली का नमूना हमें खजुराहो के मंदिरों में देखने को मिलता है जिन्हें आज यूनेस्को की विश्व विरासत में शामिल किया जा चुका है।
गुर्जर-प्रतिहार वंश के इतिहास के प्रामाणिक साधन उसके अभिलेख हैं। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख है, जो एक प्रशस्ति के रूप में है। इसमें कोई तिथि अंकित नहीं है। यह प्रतिहार वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों तथा उनकी वंशावली को जानने का मुख्य साधन है। इसके अलावा इस वंश के राजाओं के अन्य अनेक लेख मिलते हैं, जो न्यूनाधिक रूप में उनके काल की घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं। प्रतिहारों के समकालीन पाल तथा राष्ट्रकूटों के लेखों से प्रतिहार शासकों को उनके साथ संबंधों का पता चलता है। उनके सामंतों के लेख भी मिलते हैं, जो उनके साम्राज्य-विस्तार तथा शासन-संबंधी घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर प्रतिहार राजाओं – महेन्द्रपाल प्रथम तथा उनके पुत्र महिपाल प्रथम के दरबार में रहे थे। इन्होंने काव्यमीमांसा, कर्पूर जरी, विद्धशालभंजिका, बालरामायण, भुवनकोश आदि ग्रंथों की रचना की थी। इन सभी रचनाओं के अध्ययन से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का पता चलता है।
आपसी संघर्ष और राजवंश का पतन:
गुर्जर-प्रतिहार वंश का साम्राज्य आपसी संघर्ष के चलते खत्म हुआ। साथ ही इतिहासकारों का कहना है कि इनके पतन का एक कारण राष्ट्रकूट राजा तृतीय इन्द्र का आक्रमण भी है। राजा इन्द्र ने लगभग 916 ई. में कन्नौज पर हमला करके इसे ध्वस्त कर दिया। बाद में अपेक्षाकृत अक्षम शासकों के शासन में प्रतिहार अपनी पुरानी प्रभावशालिता पुनः नहीं प्राप्त कर पाए। इनके अधीन सामंत आधिकारिक मजबूत होते गए और 10वीं सदी आते आते अधीनता से मुक्त होते चले गये। इसके बाद प्रतिहारों के अधिकार में गंगा-दोआब व उसके आस-पास का कुछ राज्यक्षेत्र बचा। इस राजवंश के आखिरी महत्वपूर्ण राजा राज्यपाल को महमूद गजनी के हमले के कारण 1018 में कन्नौज छोड़ना पड़ा। रास्ते में उसे चंदेलों ने पकड़ कर मार डाला और उसके पुत्र त्रिलोचनपाल को एक प्रतीकात्मक राजा के रूप में गद्दी पर बैठाया। इस वंश का अंतिम राजा यशपाल था जिसकी 1036 ई में मृत्यु के बाद यह राजवंश समाप्त हो गया।