इजरायल-फलस्तीन के बीच शुरू हुए युद्ध ने विश्व राजनीति में हड़कंप मचा दिया है। पहले ही दो खेमों में बंटी दुनिया के बीच खाई को इसने और बढ़ा दिया है। इस युद्ध के पहले उम्मीद की जा रही थी कि इस क्षेत्र में शांति के लिए दो साल पुराने अब्राहम समझौते और इजरायल तथा खाड़ी के बीच सामान्यीकरण की प्रक्रिया को बल मिल रहा है, लेकिन इस घटनाक्रम से यह उम्मीद भी हाशिए पर चली गई है। रूस-यूक्रेन युद्ध में हाल में आई नरमी से लगने लगा था कि वैश्विक स्तर पर डिप्लोमेसी की नई पिच तैयार हो रही है, लेकिन इजरायल-फलस्तीन युद्ध ने उस विश्वास को भी पटरी से उतार दिया है। इन सबका भारत पर परोक्ष असर पड़ना लाजिमी है। हालांकि अपनी विदेश नीति को भारत ने अभी तक संतुलित बना रखा है। वह इजरायल का खुलकर समर्थन तो कर रहा है, पर फलस्तीन का सरेआम विरोध भी नहीं कर रहा।
अब्राहम अकॉर्ड और इजरायल-गल्फ नॉर्मलाइजेशन प्रक्रिया हाशिए पर
भारत के पूर्व राजदूत योगेश गुप्ता जागरण प्राइम से कहते हैं, इस युद्ध का विश्व और भारत पर कैसा असर होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह कितना लंबा चलता है। सऊदी अरब में बेचैनी शुरू हो गई है। अमेरिका की कोशिश थी कि मध्य-पूर्व में शांति बहाल हो। यूएई, बहरीन, सूडान और मोरक्को इसके ध्वजवाहक थे। सीरिया की अरब देशों में वापसी से यहां शांति की स्थापना मजबूत हो रही थी। लेकिन नए घटनाक्रम से अब्राहम अकॉर्ड और इजरायल-गल्फ नॉर्मलाइजेशन प्रक्रिया को धक्का लगा है। वह कहते हैं कि इसका असर वैश्विक राजनीति पर पड़ना लाजिमी है। दुनिया पहले ही खेमों में बंटी थी, इस युद्ध ने उस खाई और कड़वाहट को बढ़ाने का काम किया है। जहां तक प्रगतिशील देशों की बात है, वे किसी भी पक्ष का हिस्सा नहीं बनना चाहते।
लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस.सोढ़ी कहते हैं, हमले के दिन का चुनाव जिस तरह हुआ है वह भी गौर करने लायक है। इजरायल का सिमचैट टोहरा साल में एक तरह से सबसे खुशी वाला दिन होता है। उस दिन जितना चौकन्ना रहने की जरूरत थी, शायद उतना इजरायल ना रहा हो। वे युद्ध के मूलतः तीन बड़े कारण बताते हैं- कुछ दिनों पहले चीन और फलस्तीन के बीच हुआ रणनीतिक समझौता, ईरान की बढ़ती सैन्य ताकत और इजरायल की अंदरूनी समस्याएं। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में वेस्ट एशिया स्टडीज के प्रोफेसर हुमायूं अख्तर नाजमी कहते हैं कि अब्राहम अकॉर्ड एक बेहतरीन पहल थी। उम्मीद की जा रही थी कि इससे कई मसले हल हो जाएंगे, लेकिन युद्ध ने फिलहाल इसे पीछे कर दिया है। जहां तक यूएई की बात है, भले ही वह इस वक्त किसी का पक्ष नहीं ले रहा लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर वह फलस्तीन का ही साथ दे रहा है।
वैश्विक राजनीति और खेमों में बंटी दुनिया
सोढ़ी कहते हैं, रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरुआती दिनों में ऐसा माना जा रहा था कि यह छोटा युद्ध होगा, लेकिन अब उसके डेढ़ साल बीत चुके हैं और पूरा विश्व उससे प्रभावित है। इजरायल-फलस्तीन युद्ध भी लंबा चला तो दूसरे देश भी उसमें जुड़ते नजर आएंगे। फलस्तीन और इजरायल के बीच राजनीतिक द्धंद्व है। इसके लिए रूस, अमेरिका और चीन को इस राजनीतिक विवाद का हल तलाशने पर फोकस करना होगा। जहां तक ईरान की बात है, उसकी सैन्य ताकत जितनी बढ़ेगी वह हमास को सपोर्ट करेगा। रूस-यूक्रेन युद्ध ने दुनिया के हालात बिगाड़े हैं, ऐसे में इस वॉर को जल्द खत्म करने की आवश्यकता है। इजरायल और सऊदी अरब समझौते का भी इस पर असर पड़ेगा। मिडिल ईस्ट में शांति की प्रक्रिया भी इससे प्रभावित होगी। मिडिल ईस्ट अगर परमाणु शक्ति संपन्न बन जाता है तो ईरान इसका इस्तेमाल कर सकता है।
हुमायूं अख्तर नाजिमी कहते हैं कि हमास के पास अपना कुछ नहीं है। हमास के चीफ चार माह पहले रूस गए थे। ईरान फलस्तीन की मदद कर रहा है। दुनिया में मौजूदा समय में हर मुल्क चाहता है कि हम तबाह न हो, भले ही दुनिया का कोई भी देश बर्बाद हो जाए। 9-11 के हमले में 17 हाईजैकर में 15 सऊदी के थे। इसकी वजह से अफगानिस्तान बर्बाद हो गया।
भारत पर असर
पूर्व राजदूत योगेश गुप्ता कहते हैं कि हमारे लिए आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है। हम हमेशा हर वैश्विक मंच पर आतंकवाद के खिलाफ मुखर आवाज उठाते रहे हैं। पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद ने भारत को कई गंभीर चोटें दीं। वहीं कनाडा में उभर रहा सिख आतंकवाद भी भारत के लिए सिरदर्द बन रहा है। इसे कनाडा समेत कुछ पश्चिमी देशों में गुपचुप समर्थन मिल रहा है। ऐसे में आतंकवाद से निपटना हमारे लिए सबसे अहम है। सोढ़ी कहते हैं कि भारत पर लंबा युद्ध चलने की स्थिति पर असर पड़ेगा। भारत हमेशा कहता रहता है कि किसी भी समस्या का हल डिप्लोमेसी से होना चाहिए। युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है। यही प्रतिक्रिया सारे देशों को देनी चाहिए।
प्रोफेसर हुमायूं अख्तर नाजमी कहते हैं कि इजरायल और फलस्तीन को लेकर हाल फिलहाल में हमारी नीति बैलेंसिंग एक्ट वाली रही है। इसके कई उदाहरण है। गल्फ वार में अमेरिका ने भारत से मदद मांगी थी। वह मुंबई से रिफ्यूलिंग की अनुमति चाहता था लेकिन तब संसद ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। हमारे इजरायल से 1992 के बाद से संबंध बने हैं। भारत इस बात की पुरजोर कोशिश करेगा कि हम साम्यावस्था की स्थिति में रहें। इजरायल-फलस्तीन 1948 से लड़ाई लड़ रहे हैं। लड़ाई में कभी कोई जीतता नहीं है, लड़ाई में हार ही होती है। हम सऊदी, यूएई, कतर को छोड़ नहीं सकते हैं। हम न्यूट्रल रहें।
व्यापार पर प्रभाव
भारत और इजराइल के बीच अगर इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट को देखें तो बीते वित्त वर्ष 2022-23 में भारत ने इजराइल से करीब 1400 तरह के समान का आयात किया। इसमें मोती, रत्न-आभूषण, फर्टिलाइजर, इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट और क्रूड इत्यादि शामिल हैं। ये व्यापार करीब 2.32 अरब डॉलर का है।
दूसरी ओर भारत ने इजराइल को करीब 3500 वस्तुओं का निर्यात किया है। 2022-23 में ये करीब 8.45 अरब डॉलर का रहा है। भारत इजराइल को तराशे हुए हीरे, ज्वेलरी, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स और इंजीनियरिंग सामान की सप्लाई करता है। दोनों देश 2022 से फ्री ट्रेड एग्रीमेंट को लेकर बातचीत कर रहे हैं। योगेश गुप्ता कहते हैं कि भारत-इजरायल का बड़ा ट्रेड पार्टनर है। इजराइल के लिए भारत एशिया में तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, वंही भारत बड़ी मात्रा में इजराइल को निर्यात करता है। फलस्तीन से हमारा कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं है लेकिन हमारे राष्ट्रीय हित फिलवक्त इजरायल से जुड़े हैं।
कच्चे तेल की सप्लाई पर असर
इस युद्ध का सबसे पहले असर कच्चे तेल की आपूर्ति पर पड़ता दिख रहा है। अगर युद्ध पूरे पश्चिम एशिया में फैला, और भी देश इसमें शामिल होने लगे तो कच्चे तेल की सप्लाई बाधित हो जाएगी। इसका असर कीमत पर पड़ेगा और तेल के दाम बढ़ने लगेंगे। भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमतों से बाकी कई चीजों के दाम से लिंक हैं। माल-ढुलाई महंगी हुई तो खाने-पीने की चीजें भी महंगी हो जाएंगी। इजरायल के लिए भारत एशिया में तीसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। इजरायल की कंपनियों का भारत में निवेश है। युद्ध की स्थिति में ये कारोबार प्रभावित हो सकता है।
रक्षा क्षेत्र पर असर
लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस.सोढ़ी कहते हैं कि भारत पर सुरक्षा और व्यापार के नजरिए से असर होगा। रक्षा उपकरणों में आज इजराइल भारत के आयात का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है। उसके अलावा करीब 10 अरब डॉलर का व्यापार है। इजरायल और हमास का युद्ध लंबा चला तो इजरायल का व्यापार भारत समेत दुनिया के देशों के साथ कम होगा क्योंकि उसके लिए सबसे पहले घरेलू चुनौतियों को पूरा करने की जिम्मेदारी होगी। हमारे डिफेंस एक्सपोर्ट पर बड़ा फर्क पड़ेगा। इजरायल मेक इन इंडिया में भारत की काफी मदद कर रहा है।
नए तरह का युद्ध
सोढ़ी कहते हैं कि जैसा हमास ने किया, वैसा दुनिया की कोई बड़ी सेना भी नहीं सोच सकती है। उन्होंने इजरायल डिफेंस के इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम को जाम कर दिया। इजरायल को दुनिया की सबसे सशक्त सेनाओं में गिना जाता है। यह हमला दिखाता है कि हमास की प्लानिंग और ट्रेनिंग कितनी सशक्त थी। आने वाले समय में लड़ाइयां दूर से बैठे-बैठे अधिक होंगी। योगेश गुप्ता कहते हैं कि मौजूदा समय में तकनीक को युद्ध में सबसे अहम माना जाने लगा है लेकिन ट्रेडिशनल वारफेयर की महत्ता इस युद्ध में देखने को मिली है। ऐसे में यह सोचने की आवश्यकता है कि हमें तकनीक और ट्रेडिशनल वॉरफेयर का बैलेंस रखना होगा।
अब्राहम समझौता
15 सितंबर, 2020 को हुआ अब्राहम समझौता इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच हस्ताक्षरित अरब-इजरायल सामान्यीकरण पर द्विपक्षीय समझौता है। दोहरे समझौते के हिस्से के रूप में, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन दोनों ने इज़राइल की संप्रभुता को मान्यता दी, जिससे पूर्ण राजनयिक संबंधों की स्थापना संभव हो सकी। गौरतलब है कि इससे पहले वर्ष 1994 में इज़राइल और जॉर्डन के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
ओस्लो समझौता
ओस्लो समझौते के तहत गाजा स्ट्रिप और वेस्ट बैंक को 3 क्षेत्रों में बांटा गया। जोन ए में ऐसे क्षेत्रों को रखा गया जिन पर फिलिस्तीन का पूरा नियंत्रण था। जोन बी में उन क्षेत्रों को रखा गया, जहां प्रशासन फिलिस्तीन का लेकिन सुरक्षा इजरायल के हाथ रही। जोन सी पर पूर्ण रूप से इजरायल का नियंत्रण था। 1995 में हुए ओस्लो-2 समझौते के बाद वेस्ट बैंक से फिलिस्तीन के हिस्से में कई प्रमुख शहर आए। इनमें हेब्रों, यत्ता, बेतलहम, रमल्ला, कल्कइलियाह, तुलकार्म, जैनीन, नाबुलुस थे। इसके अलावा गाजा पट्टी के शहर भी फिलिस्तीन को मिले। जिसमें रफाह, खान यूनुस, डायरल, अलबलह, जबलियाह, अन नजलाह शामिल हैं। इस समझौते के बाद ऐसा लगने लगा था कि इजरायल और फिलिस्तीन का विवाद अब खत्म हो गया है। अब दोनों देश शांतिपूर्वक आगे बढ़ेंगे।
शरणार्थी
आज लगभग 56 लाख फलस्तीनी शरणार्थी, मुख्य रूप से 1948 में भागे लोगों के वंशज, लेबनान, सीरिया, इजरायल के कब्जे वाला वेस्ट बैंक और गाजा और जार्डन में रहते हैं। फलस्तीनी विदेश मंत्रालय के अनुसार, लगभग आधे पंजीकृत शरणार्थी राज्यविहीन हैं, जिनमें से कई भीड़-भाड़ वाले शिविरों में रह रहे हैं। फलस्तीनियों की लंबे समय से मांग रही है कि शरणार्थियों को उनके लाखों वंशजों के साथ वापस लौटने की अनुमति दी जानी चाहिए। इजरायल का कहना है कि फलस्तीनी शरणार्थियों का कोई भी पुनर्वास उसकी सीमाओं के बाहर होना चाहिए।
इजरायली बस्तियां
अधिकांश देश 1967 में इजराइल द्वारा कब्जा की गई भूमि पर बनी यहूदी बस्तियों को अवैध मानते हैं। इजरायल इस भूमि से ऐतिहासिक और बाइबिल संबंधों का हवाला देता है। उनका निरंतर विस्तार इजरायल, फलस्तीन और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच सबसे विवादास्पद मुद्दों में से एक है।
यरुशलम की स्थिति
फलस्तीनी पूर्वी यरुशलम को अपने राज्य की राजधानी बनाना चाहते हैं। इजरायल का कहना है कि यरुशलम को उसकी राजधानी बनी रहनी चाहिए। यरुशलम के पूर्वी हिस्से पर इजरायल के दावे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है। ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दी और 2018 में अमेरिकी दूतावास को वहां स्थानांतरित कर दिया।
इजरायल-फलस्तीन भौगौलिक स्थिति
इजरायल के पूर्वी और दक्षिण-पश्चिम हिस्से में दो अलग-अलग क्षेत्र मौजूद हैं। पूर्वी हिस्से में वेस्ट बैंक और दक्षिण-पश्चिम हिस्से में एक पट्टी है, जिसे गाजा पट्टी के तौर पर जाना जाता है। वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी को ही फलस्तीन माना जाता है। हालांकि, वेस्ट बैंक में फलस्तीन नेशनल अथॉरिटी सरकार चलाती है और गाजा पट्टी पर हमास का कब्जा है, जो इजरायल विरोधी एक चरमपंथी संगठन है।