प्रदेश कांग्रेस समन्वय समिति अपनी पहली परीक्षा में पास होगी या नहीं, अथवा पार्टी हाईकमान का प्रयोग किस सीमा तक सफल रहा, केदारनाथ उपचुनाव के परिणाम इसकी तस्दीक भी करेंगे। कांग्रेस हाईकमान ने प्रदेश संगठन की कप्तानी करन माहरा को सौंपने के ढाई वर्ष बाद भी उन्हें प्रदेश कार्यकारिणी के रूप में नई टीम तो नहीं थमाई, लेकिन प्रदेश के सभी वरिष्ठ नेताओं को सम्मिलित कर समन्वय समिति की कमान सौंप दी। दिग्गज नेताओं से सजी-धजी इस समिति ने ही प्रत्याशी चयन से लेकर उपचुनाव की रणनीति तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई है। उपचुनाव के परिणाम समन्वय समिति भी टकटकी बांधे हुए है। उत्तराखंड की राजनीति पर कभी बेहद मजबूत पकड़ रखने वाली कांग्रेस लगभग 10 वर्षों से बड़े चुनावों में निर्णायक जीत के लिए तरस रही है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी पांच सीट गंवाने के बाद वर्ष 2024 तक कांग्रेस सत्ता से दूर होकर मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में अटक गई है। इस बीच दो विधानसभा चुनाव और दो लोकसभा चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए करन माहरा ढाई वर्ष से अधिक कार्यकाल पूरा कर चुके हैं। नई प्रदेश कार्यकारिणी का उनका सपना पूरा नहीं हो सका। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में हार के एक माह बाद गत जुलाई माह में कांग्रेस को प्रदेश में दो विधानसभा सीटों बदरीनाथ और मंगलौर में हुए उपचुनाव में विजय मिली। इस जीत ने कांग्रेस का मनोबल बढ़ाया। प्रदेश में संगठन को मजबूत बनाने और आगे विधानसभा उपचुनाव, नगर निकायों और पंचायतों के चुनाव के दृष्टिगत हाईकमान ने पार्टी विधायकों और वरिष्ठ नेताओं के साथ गहन विचार-विमर्श के बाद गत अगस्त माह में प्रदेश कांग्रेस समन्वय समिति गठित की। प्रदेश अध्यक्ष माहरा के नेतृत्व वाली इस 19 सदस्यीय समिति में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह एवं पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल, पूर्व कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत समेत लगभग सभी वरिष्ठ नेताओं एवं विधायकों को प्रतिनिधित्व दिया है।
केदारनाथ उपचुनाव समन्वय समिति के दिशा-निर्देशन में ही लड़ा गया। हाईकमान और समन्वय समिति का ही दबाव रहा कि उपचुनाव में सभी वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में छोटी-छोटी सभाएं, जनसंपर्क समेत सघन प्रचार किया। उपचुनाव के परिणाम से यह तय होगा कि समन्वय समिति की रणनीति किस हद तक सफल रही है। परिणाम सकारात्मक रहे तो नगर निकाय चुनाव से लेकर आगे समन्वय समिति और प्रभावी होकर उभरेगी, अन्यथा समन्वय की यह रणनीति ही सवालों के घेरे में भी आ सकती है।